लोग क्या कहेंगे

 



ललित उपमन्यु

‘फोन बजा। हां, बेटी बोलो’

उधर से कजरी फोन पर ही फूट पड़ी।

‘सब बिखर रहा है बाबूजी। हम गलत फंस गए हैं। ये लोग बड़े जरूर हैं लेकिन बड़प्पन बिलकुल नहीं हैं इनमें। इतनी निर्ममता। न चीखों का असर, न चोंटों का। पति इतना क्रूर कैसे हो सकता है। बिना कुसूर की यातना। रोज मदिरापान… रोज पिटाई। इतने कपटी कि एक और स्त्री..., कहते हुए कजरी की आवाज हलक में अटक गई। घर वाले भी इन्हीं का समर्थन करते हैं। तुम्हें इसी माहौल में रहना होगा। नहीं तो जाओ अपने बाप के घर। करोड़ों की दौलत लेकर नहीं आई हो। इन्हें नौकरानी चाहिए थी।‘ वो धाराप्रवाह बोले जा रही थी। लगा ‘आंसुओं के बांध का सब्र टूट गया है।’ वो यह भी भूल गई कि उसकी बातें बाबूजी पर क्या कहर ढाएंगी।

बाबूजी के पैरों से जमीन खिसक गई। वे इतना ही कह पाए-‘बेटी मुझे कुछ-कुछ खबरें मिल रही थीं तुम्हारी परेशानियों की। अपने को संभालो। मैं हूं ना। सब ठीक कर लूंगा। आता हूं, तुम्हारे ससुराल। बात करूंगा समधी जी से। ऐसा क्या गुनाह कर दिया मेरी बेटी ने जो इतने सितम ढा रहे हैं।’

‘नहीं, आप कोई बात मत करना। नहीं तो इनकी यातना और बढ़ जाएगी। आप इन लोगों को नहीं जानते हैं। फोन भी छुपकर कर रही हूं। रखती हूं।’ फोन बंद होने के बाद महेश बाबू धम्म से पलंग पर धंस गए।

***

महेश बाबू रिटायर्ड अध्यापक थे। मूल निवासी प्रतापगढ़ (उत्तरप्रदेश)। बरसों पहले नौकरी के सिलसिले में मध्यप्रदेश आए तो यहीं के होकर रह गए। नौकरी के दौरान तबादलों में कई शहरों को नापते हुए आखिरी में अनूपगढ़ में एक छोटा सा मकान लेकर स्थायी ठौर बना लिया। 12, मीरा गंज। यही था उनका स्थायी पता।

कजरी उनकी इकलौती बेटी है। पत्नी सुमन बरसों पहले चल बसी थी। तब कजरी सात साल की थी। वे दूसरा विवाह कर लेते तो भी शायद ज्यादा सामाजिक लांछन नहीं मिलते पर उनके ‘स्व-रचित’ सामाजिक बंधन और रवायतें थीं जिसके पार वो जाना नहीं चाहते थे। दोबारा शादी की बात पर कह देते- लोग क्या कहेंगे। इस एक वाक्य ने उनमें गहरे पैठ कर रखी थी। घर में दिनभर फुदकने वाली कजरी को वे लाड़ से तितली कहते, लेकिन उसकी परवरिश में समाज के कथित मापदंड सख्ती से लागू थे। अंधेरा होने से पहले घर लौटना। अकेले कहीं नहीं जाना। लड़कों से बात नहीं करना। वेशभूषा की भी मर्यादाएं तय थीं। हालांकि कजरी खुद अंतर्मुखी थी। ‘फैशन परेड’ से उसे सख्त परहेज था। इससे हुआ यह कि उन्हें कभी आवाज ‘ऊंची’ नहीं करना पड़ी।

कॉलेज की पढ़ाई खत्म हुई। कजरी शादी के लायक हो गई। उसका सौंदर्य बेहद ‘अनुशासित’ था। प्रसाधनों के बगैर भी वो आकर्षक लगती थी। उसकी आंखें ‘मुखर’ लेकिन संस्कारित थीं। महेश बाबू ने सीमित आय में उसकी शादी के लिए कुछ बचाया था लेकिन वो इतनी ‘सौंदर्य-सम्पन्न’ थी कि करोड़ों का वारिस भी उसके सामने दरिद्र लगे।

महेश बाबू को डर था कि शादी की उम्र होने के बाद भी बेटी घर में बैठी रही तो लोग क्या कहेंगे। समाज में बेटी का पिता होना जुमलों में भले ही गर्व का विषय हो, लेकिन चिंता का विषय ज्यादा होता है। उसके सुखद भविष्य की चिंता। बेटी के सुखी घर में ब्याहने का मतलब है-बुढ़ापे में घर बैठे ‘चारधाम यात्रा।’

उन्होंने ताबड़तोड़ वर की तलाश शुरू कर दी। अंततः एक परिचित के बताए रिश्ते पर वे रुके। अनूपगढ़ से कोई साठ मील दूर श्यामगढ़ कस्बे में। लड़के की पृष्ठभूमि में घर की जमीन-जायदाद से खा-कमा लेने का जिक्र उन तक पहुंचा। इकलौता बेटा, शादी लायक एक बहन और मां-बाप सहित कुल चार लोग थे। परिवार की इन फौरी सूचनाओं के आधार पर उन्होंने रिश्ते की हां कर दी। लोग कुछ कहें उससे पहले वे बेटी ब्याह देना चाहते थे। कुछ दिन बाद सादे समारोह में कजरी ब्याहकर ससुराल चली गई।

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ये आठ महीने पुरानी बात है। तब महेश बाबू बहुत खुश थे।रात में बिस्तर पर जाते तो सुमन की तस्वीर से बातें करते। देखो, मैंने जिम्मेदारी ठीक से निभा दी है। हमारी कजरी अच्छे घर में ब्याही गई है। फिर ना कहना मैं नहीं थी तो तुमने गड़बड़ कर दी। इस सुकूनभरी ‘स्व-चर्चा’ का सिलसिला बमुश्किल महीनेभर ही चला।

इस बीच एक बार कजरी मायके भी आई। जितने दिन वो रुकी, होंठों पर मुस्कान लिए थी, लेकिन उसकी संस्कारित आंखें झूठ नहीं बोल पा रहीं थीं। घर में रहते हुए पिता-पुत्री के बीच हुए संवाद और ‘दृष्टि-मिलन’ में कुछ ऐसे गोपनीय राज परोक्षतः उजागर हो गए जिसने महेश बाबू को अनिष्ट का इशारा दे दिया था। हालांकि, लाख कुरेदने के बाद भी कजरी ने ऐसा कुछ नहीं बताया जिससे लगे कि उनकी घर बैठे की ‘चारधाम यात्रा’ में बड़ा व्यवधान आ गया है। महेश बाबू ने भी ‘स्व-चर्चा’ में खुद को यह कहकर समझा लिया कि नया-नया रिश्ता है। एक-दूसरे को समझ लेंगे तो सब ठीक हो जाएगा लेकिन आज कजरी के फोन ने तूफान को दहलीज तक पहुंचा दिया था।

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पलंग पर लेटे महेश बाबू छत को एकटक देखे जा रहे थे। कजरी के शब्द उनके कानों को भेद रहे थे। हम गलत फंस गए हैं बाबूजी.., निर्मम हैं ये लोग। पर स्त्री...। वे बड़बड़ाने लगे। क्या मैंने अनजाने में ही बेटी को यातनागृह में धकेल दिया है? क्या वो बिना दहेज की शादी का दंड भुगत रही है? खाते-पीते परिवार की भूख इतनी ज्यादा भी हो सकती है कि बहू की चमड़ी तक नोंच ले। इस भूख के आगे क्या उसके सद्गुण, सुंदरता गौण हैं?

महेश बाबू अब सुमन की तस्वीर से आंखें चुराते। उन्हें लगता कि सुमन उनसे सवाल कर रही है- बत्तीस साल की नौकरी में हजारों शिष्यों को पहचानने वाले मास्टरजी, दामाद चयन में अक्षम्य चूक कैसे कर गए। कभी उन्हें लगता तस्वीर से लिपटकर माफी मांग लें। कभी सोचते बेटी को घर ले आएं। फिर ठिठक जाते।

उसे घर ले आऊंगा तो कोई नहीं पूछेगा कि सही कौन, गलत कौन। यह स्थायी सामाजिक व्यवस्था है कि पुरुष कितना ही दुष्ट, नाकारा और कुलक्षणी हो, पति के बिना रहने वाली स्त्री को दो ही प्रमाण पत्र दिए जाते हैं-

-पति को छोड़कर बैठी है। ससुराल में टांग नहीं टिकी।

-पति ने छोड़ दिया है। लक्षण खराब होंगे।

इस तरह के प्रमाण-पत्र ग्रहण करने का साहस उनमें नहीं था। उन्होंने जीवन भर भले ही इतिहास पढ़ाया लेकिन उनके स्वभाव में क्रांति की सूक्ष्म ज्वाला तक नहीं थी। वे हमेशा समाजशास्त्र के मापदंडों में ही उलझे रहे।

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कजरी के साथ शुरुआती हिंसा शाब्दिक थी जो कालांतर में प्रहारों में तब्दील हो गई। रोज का सिलसिला था। पति का मदिरापान करके आना, खाने की थाली फेंकना और उसके बाद... कमरे से चीखने-चिल्लाने की आवाजें। मत मारो...। मैंने किया क्या है। क्यों मार रहे हो। बचा लो मां जी...। इन आठ महीनों में शायद ही कभी पति ने कजरी को पत्नी की तरह स्पर्श किया हो। ऐसा अवसर आया भी तो उसमें पति-पत्नी के रिश्ते की गर्मी कहीं नहीं थी। ईश्वर ने स्त्री को ये खास शक्ति दी है कि वो स्पर्श मात्र से पुरुष के इरादे भांप लेती है। पुरुष अगर पति हो तो नतीजा बेहद सटीक होता है। उसका पति कभी इस परीक्षा में खरा नहीं उतरा।

कजरी उस यातनागृह में अकेली ही संघर्षरत थी। सास-ससुर गूंगे-बहरे बन जाते। शादी योग्य एक ननद थी। कजरी को उससे महिला होने के नाते नैतिक समर्थन की उम्मीद थी लेकिन वो ऐसे मुहाने पर खड़ी थी जिसके एक तरफ उसका भविष्य था और दूसरी तरफ रोज प्रताड़ित होती भाभी। उसका वोट परिवार को ही जा रहा था।

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जब यातनाएं असहनीय हो गईं तो कजरी ने जिंदगी के नए विकल्पों पर खुद से विमर्श शुरू किया।

इसी यातनागृह में याचक बनकर जीवन गुजार दूं?

अब शायद बर्दाश्त नहीं हो पाएगा।

बाबूजी के यहां लौट जाऊं?

-लोग क्या कहेंगे। बाबूजी का पहला सवाल होगा।

देह विसर्जन... संसार से संसार से पलायन?

ये विकल्प हालांकि, खतरनाक था लेकिन उसे अंतिम और ज्यादा सुविधाजनक लगा।

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तय हुआ, मौका मिलते ही मृत्यु वरण करेगी। कहते हैं कभी-कभी जीने से ज्यादा कठिन मरना हो जाता है। वो राह तलाशने लगी। रेल की पटरी.. फांसी का फंदा...। घर की पहली मंजिल से छलांग...। उसे इन रास्तों से ‘प्रण-पूर्ति’ में संशय था। फंदा टूट गया, किसी ने बचा लिया... जान बच गई तो...। वो मौत से अधूरा साक्षात्कार नहीं करना चाहती थी। खंडित प्रयास नहीं करना है। उसने खुद से आश्वासन लिया।

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घर के बगीचे का माली पेटी में कीटनाशक की शीशी रखता है, यह जानकारी थी उसे। उसने शीशी कब्जे में ले ली। बहुत मार लिए कीट-पतंगे। अब बाबूजी की तितली इसकी चपेट में आएगी। उसकी आंखों में संकल्पसिद्धि का सुकून था।

मौत का असलहा साथ था। बस योजना को अमलीजामा पहनाना था। कमरे में प्रायः ऐसा अवसर आता जब वो अकेली जख्मों के साथ सुबकती रहती। अत्याचार... अकेलापन... अंधकारमय भविष्य...। मौत के लिए ये मौसम सबसे मुफीद हो सकता था, लेकिन कहते हैं ना मौत एक क्षण ही अवसर देती है, उसमें कुछ कर गुजरे तो ठीक नहीं तो प्रतीक्षारत रहिए। ऐसा ही कजरी के साथ हो रहा था। वो जब भी मौत की तरफ कदम बढ़ाती, बाबूजी की नम आंखें उसे रोक देती।

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आज नहीं, कल तो पक्का...। रोज वो संकल्प दोहराती और रोज बाबूजी मृत्युंजय बनकर अदृश्य रूप से आ खड़े होते। वो उनसे एकल संवाद करती। जाने दो न बाबूजी। अब नहीं सहा जाता। आपको बताऊंगी तो रोक लोगे। जिंदा रह नहीं सकती, मरने आप दोगे नहीं।

ऐसे ही कई दिन गुजर गए। मौत का जोश ठंडा पड़ रहा था। वो अब ऐसी दिशा खोज रही थी जिसमें बाबूजी की फिक्र भी शामिल हो। लोग क्या कहेंगे... बाबूजी के इस सूत्र वाक्य की धारा को मोड़ना चाहती थी। मेरी अकाल मौत और लोगों के उलाहने। वो टूट जाएंगे। मैं इतनी स्वार्थी हो गईं हूं। उन्हें अकेला छोड़कर जाना चाहती हूं... नहीं-नहीं...। मां तो पहले ही नहीं रहीं। उनका हक है। मेरा हर फैसला जानें।

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दोपहर उसने फोन लगाया। ‘हां, बेटी।‘ इस बार कजरी की आवाज मजबूत थी। ‘बाबूजी, मैं इस यातनागृह से मुक्त हो रही हूं। तीन मार्ग हैं। कहीं और जाकर अकेले जीवन गुजारूं। आपके पास आ जाऊं या फिर मौत...। लोग तो हर हाल में कुछ न कुछ कहेंगे ही। आश्चर्यजनक ढंग से इस बार 12, मीरागंज से क्रांति का सूत्रपात हो गया। ‘कहीं नहीं जाओगी तुम। कुछ नहीं करोगी। सीधे घर आ जाओ। उन्हें नसीहत लग जाए तो ठीक नहीं तो मेरे पास ही रहना।’

एक मार्ग प्रशस्त हो गया था। कजरी फोन रखकर तेजी से उठी और शीशी को बागीचे में फेंककर बुदबुदाई- यातना का अंत हो रहा है। कल का सूरज नई कहानी लिखेगा।

***

दोपहर का वक्त। घर के सामने रिक्शा रुका। कजरी उतरी और बाबूजी से लिपटकर रो पड़ी। देर तक आंसुओं का सैलाब बहता रहा। हालात सामान्य हुए तो उसने कहा- में इस तरह आ गई हूं। लोग क्या कहेंगे? शायद वो एक बार फिर बाबूजी की दृढ़ता नापना चाहती थी।

बेटी का घर बिगड़ने का मतलब होता है पिता की जीते-जी मौत। कोई पिता ऐसा नहीं चाहता पर आंखों के सामने बेटी को मरते भी तो नहीं देख सकता। जीवन एक ही बार मिलता है। उनकी भी बेटी है। उसके साथ वो ऐसा अत्याचार होने देंगे? समाज की परवाह नहीं मुझे। जरूरत पड़ी तो हमारा ये दो सदस्यीय दल मजबूती से ‘सामाजिक संसद’ में अपना पक्ष रखेगा। इतिहास पढ़ाया है अब इतिहास और समाजशास्त्र दोनों बदलने की बारी है। कम से कम मैं तो अपनी बेटी के लिए ऐसा कर ही रहा हूं। कब तक बेटियां फंदे पर लटकती रहेंगी। महीनों बाद आज कजरी की आंखें फिर ‘मुखर’ हुईं।

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