गीता की महिमा
श्रीमद्भगवद् गीता को लेकर विनोबा भावे लिखते हैं कि 'गीता और मेरा संबंध तर्क से परे है, मेरा शरीर मां के दूध पर जितना पला है उससे कहीं अधिक मेरे हृदय और बुद्धि का पोषण गीता के दूध पर हुआ है। जहां हार्दिक संबंध होता है वहां तर्क की गुंजाइश नहीं रहती। तर्क को काट कर श्रद्धा और प्रयोग इन दो पंखों से ही मैं गीता-गगन में यथाशक्ति उड़ान भरता रहता हूं। मैं प्राय: गीता के ही वातावरण में रहता हूं, गीता मेरा प्राण तत्व है। जब मैं गीता संबंध में किसी से बात करता हूं तब उस अमृतसागर में गहरी डुबकी लगा कर बैठ जाता हूं। गीता को लेकर महात्मा गांधी का कहना है कि 'हिन्दू धर्म का अध्ययन करने की इच्छा रखने वाले प्रत्येक हिन्दू के लिए यह एकमात्र सुलभ ग्रंथ है और यदि अन्य सभी धर्मशास्त्र जलकर भस्म हो जाएं तब भी इस अमर ग्रंथ के सात सौ श्लोक यह बताने के लिए पर्याप्त होंगे कि हिन्दू-धर्म क्या है और उसे जीवन में किस प्रकार उतारा जाय। मैं सनातनी होने का दावा करता हूं, क्योंकि चालीस वर्षों से उस ग्रंथ के उपदेशों को जीवन में अक्षरश: उतारने का मैं प्रयत्न करता आया हूं। गीता के मुख्य सिद्धान्त के विपरीत जो कुछ भी हो, उसे मैं हिन्दू धर्म का विरोधी मानकर अस्वीकार करता हूं। गीता में किसी भी धर्म या धर्म गुरु के प्रति द्वेष नहीं। मुझे यह कहते बड़ा आनंद होता है कि मैंने गीता के प्रति जितना पूज्य भाव रखा है, उतने ही पूज्य भाव से मैंने बाइबिल, कुरान, जंदअवस्ता और संसार के अन्य धर्म-ग्रंथ पढ़े हैं। इस वाचन ने गीता के प्रति मेरी श्रद्धा को दृढ़ बनाया है। उससे मेरी दृष्टि और उससे मेरा हिन्दू धर्म विशाल हुआ है। डा. राधाकृष्णनन के अनुसार 'गीता का उपदेश किसी एक विचारक या विचारकों के किसी एक वर्ग द्वारा सोचकर निकाली गई आधिविद्यक प्रणाली के रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया, यह उपदेश एक ऐसी परम्परा के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो मानव जाति के धार्मिक जीवन में से प्रकट हुई है। इस परम्परा को एक ऐसे गंभीर द्रष्टा ने स्पष्ट शब्दों में कहा है, जो सत्य को उसके सम्पूर्ण पहलुओं की दृष्टि से देख सकता है और उसकी उद्धारक शक्ति में विश्वास रखता है। यह हिन्दू धर्म के किसी एक सम्प्रदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करती, अपितु, समूचे रूप में हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व करती है न केवल हिन्दू धर्म का, बल्कि जिसे धर्म कहा जाता है, उस सबका, उसकी उस विश्वजनीनता के साथ प्रतिनिधित्व करती है, जिसमें काल और देश की कोई सीमाएं नही हैं। इसके समन्वय में मानवीय आत्मा का, असभ्य लोगों को अपरिष्कृत जड़पूजा से लेकर सन्तों की सृजनात्मक उक्तियों तक, समस्त सप्तक समाया हुआ है। जीवन के अर्थ और मूल्य के संबंध में गीता द्वारा प्रस्तुत किए गए सुझाव, शाश्वत जीवन के मूल्यों की भावना और वह रीति, जिसके द्वारा परम रहस्यों को तर्क के प्रकाश द्वारा आलौकिक कर दिया गया है, और नैतिक अन्तर्दृष्टि मन और आत्मा के उस मतैक्य के लिए आधार प्रस्तुत कर देते हैं, जो संसार को एक बनाए रखने के लिए परम आवश्यक है।... अधिकृत पदसंज्ञा की दृष्टि से गीता को उपनिषद् कहा जाता है, क्योंकि इसकी मुख्य प्रेरणा धर्मग्रंथों के उस महत्त्वपूर्ण समूह से ली गई है, जिसे उपनिषद् कहा जाता है। यद्यपि गीता हमें प्रभावपूर्ण और गंभीर सत्य का दर्शन कराती है, यद्यपि यह मनुष्य के मन के लिए नये मार्ग खोल देती है, फिर भी यह उन मान्यताओं को स्वीकार करती है, जो अतीत की पीढिय़ों की परम्परा का एक अंग हैं और जो उस भाषा में जमी हुई है, जो गीता में प्रयुक्त की गई है। यह उन विचारों और अनुभूतियों को मूर्तिमान और केंद्रित कर देती है, जो उस काल के विचारशील लोगों में विकसित हो रही थीं।
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