सोशल डिस्टेंसिंग और सोशल मेसेजिंग,कोरोना संकट काल में दो चीजें हर आम और खास के लिए प्रासंगिक

कोरोना संकट काल में दो चीजें हर आम और खास के लिए प्रासंगिक हो गयी हैं-पहली, सोशल डिस्टेंसिंग और दूसरी, सोशल मेसेजिंग. इन दोनों का असर हमारे घर, दफ्तर, कारोबार, अर्थव्यवस्था, सामाजिक जीवन, शिक्षा, यहां तक कि साहित्य-संस्कृति पर भी पड़ा है. ज्यादातर लोग अनायास ही इनके इतने निकट आ गये, हालांकि अब ऐसा लगता है कि यह संबंध लंबे समय तक चलेगा. सोशल मेसेजिंग को महज चैट के रूप में देखने की बजाय डिजिटल संपर्क के प्रतीकके रूप में देखा जा सकता है, जो अपने व्यापक अर्थों में बहुत सारी दूसरी घटनाओं को समेट लेता है, जैसे- ऑनलाइन कोलेबोरेशन, डिजिटल मनोरंजन, आभासी बैठकें, डिजिटल कारोबार और आभासी शिक्षा आदि. इस त्रासद दौर में जो चंद सकारात्मक बातें हुई हैं, उनमें से एक है हम सबका तकनीक के करीब जाना, उसकी क्षमताओं से परिचित होना और उसका इस तरह इस्तेमाल करना कि अपने कामकाज को कुछ हद तक सामान्य ढंग से चलाया जा सके.


तकनीक, विशेषकर इंटरनेट और क्लाउड की शक्ति, नहीं होती, तो इस महामारी सेनिपटना निजी तथा राष्ट्रीय स्तर पर बहुत ज्यादा मुश्किल होता. एक कहावत है कि अगर आप तीन सप्ताह तक किसी खास अंदाज में काम करते हैं या किसी खास चीज का प्रयोग करते हैं, तो वह आपकी आदत बन जाती है. तकनीक का हमारी आदतमें तब्दील हो जाना वैश्वीकरण और तकनीकी दबदबे के मौजूदा दौर में एकअच्छी घटना है. इसी तरह कोरोना वायरस से बचाव के प्रयासों में तकनीक का बड़े पैमाने पर सहयोगी बनकर उभरना भारत में पहली बार देखा गया. तकनीक नेन सिर्फ लोगों को जोड़े रखने में, बल्कि तेजी से सूचनाएं पहुंचाने,गतिविधियों को व्यवस्थित करने और यहां तक कि संभावित रोगियों पर नजर रखने में भी मदद की है. परंतु इनके विरोधाभासी पहलू भी हैं. प्रौद्योगिकी अपने आप में एक लोकतांत्रिक और समावेशी किस्म की ताकत है. लेकिन कोरोना संकटने उसकी सीमाओं को भी उजागर किया है. माना कि प्रौद्योगिकी अपने स्तर पर सूचनाओं को बाधित नहीं करती और सबको सशक्त बनाने की क्षमता रखती है,लेकिन उसकी यह शक्ति बहुत से पहलुओं पर निर्भर है. यह बात पहले इतनी शिद्दत से महसूस नहीं की गयी, जितनी इस बार. जैसे, दिल्ली की एक बड़ी सोसाइटी में जब छोटे कामगारों (माली, धोबी, कूड़ा उठानेवाला, काम करने वाली बाई, ड्राइवर आदि) को काम शुरू करने की इजाजत देने पर विचार हुआ, तो इन लोगों पर जो बहुत सारी (और जरूरी) पाबंदियां लगाई गयीं (फेसमास्क, सैनिटाइजर, सोशल डिस्टेंसिंग आदि) उनमें एक जगह आकर बात अटक गयी. वह थी सबके मोबाइल फोन में ‘आरोग्य सेतु’ एप का होना.


 


ज्यादातर छोटे कामगारों के पास स्मार्टफोन नहीं, बल्कि सस्ते मोबाइल फोन हैं, जिन पर एंड्राॅयड एप नहीं चलते. यहां तकनीक की सीमा सामने आ गयी. आरोग्य सेतु एप संकेत देता है कि आपके आसपास कोई कोरोना संक्रमित व्यक्ति तो नहीं है.इसी तरह, एप रखने वाले किसी व्यक्ति के संक्रमित हो जाने पर यह सरकारी एजेंसियों को सूचित करने का भी एक अच्छा जरिया है. वह तीसरे पक्ष के लिएभी जरूरी है, जैसा उपरोक्त सोसाइटी के मामले में स्पष्ट होता है. ये लोग स्मार्टफोन के अभाव में खुद भी असुरक्षित हैं और उनके संपर्क में आने वाले दूसरे लोग भी. तब कैसे कहा जाये कि तकनीक की ताकत समावेशी, निष्पक्ष और लोकतांत्रिक है?ऐसे लाखों छात्र लॉकडाउन में ऑनलाइन शिक्षा के दायरे से बाहर रह गये,जिनके पास स्मार्टफोन या पर्सनल कंप्यूटर नहीं है. ऐसे बहुत से लोग कोलेबोरेशन या सहकर्म के दायरे से बाहर रह गये, जिनके घर पर कंप्यूटर नहीं है या फिर अच्छी इंटरनेट कनेक्टिविटी नहीं है.


जहां शहरी इलाकों की बड़ी आबादी का काम तकनीकी माध्यमों की मदद से चलता रहा, वहीं ग्रामीण औरअविकसित इलाकों में बहुतों को पता ही नहीं चला कि ऐसा भी कोई रास्ता निकाला गया था. पता चलता भी, तो बिजली की अनुपलब्धता, डिजिटल उपकरण याफिर तकनीकी दक्षता के अभाव के कारण वे पीछे ही रहते. यदि भाषा की चुनौती तथा गरीबी से जुड़े मसले जोड़ दें, तो ऐसा लगेगा कि इस दौर में डिजिटल विभाजन बढ़ा ही है. सच यही है कि तकनीक समृद्ध लोग आगे निकल गये हैं औरत कनीक वंचित पीछे छूट रहे हैं. सोशल मीडिया ने संकट काल में सूचनाओं के माध्यम से लोगों को एक-दूसरे से जोड़े रखा, लेकिन इन्हीं माध्यमों पर गलत सूचनाएं, फेक न्यूज और दुष्प्रचार ने भी जोर पकड़ा. लोगों के बीच भयऔर नफरत फैलाने वालों को तो अच्छा मौका मिला, क्योंकि इस समय लोगों के पास अतिरिक्त समय था. औसतन 3.47 घंटे प्रति सप्ताह स्मार्टफोन का इस्तेमाल किया गया है.


उसमें भी 19 फीसदी समय चैट को गया है, 15 फीसदी सोशल नेटवर्किंग को, 14 फीसदी वीडियो स्ट्रीमिंग को और छह फीसदी ब्राउजिंग को.दूसरे मुद्दों को फिलहाल अनदेखा भी कर दें, स्मार्टफोन पर खर्च होने वाला कम-से-कम 54 फीसदी समय ऐसी ही गतिविधियों में लगा है, जिनके जरिये गलत और गुमराह करनेवाली सूचनाएं इंटरनेट की दुनिया में यात्रा करती हैं. इतना ही नहीं, साइबर ठगों को भी कोरोना त्रासदी ने एक मौका दे दिया. उन्होंने तकनीक की दुधारी तलवार का इस्तेमाल सीधे-सादे लोगों को ठगने के लिए किया.कुछ नाकारा लोगों ने अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए भी तकनीक की आड़ली. श्रमिकों के लिए ट्रेनें चलीं, लेकिन लाखों श्रमिक जानकारी की तलाशही करते रह गये. कहीं तो कमी रही हाकिमों के स्तर पर, तकनीक के स्तर परया मजदूरों की बेबसी के स्तर पर. अब किसे जिम्मेदार ठहराया जाये? राज्य सरकारों ने मजदूरों के पंजीकरण के लिए जो वेबसाइटें बनवायीं, उनमें सेअनेक ठीक से नहीं चलीं. अनेक श्रमिकों ने मीडिया से कहा कि उन्हों ने घंटों कोशिश की, लेकिन अक्सर वे हेल्पलाइन से संपर्क न कर सके. जाहिर है,बहुत से लोगों के लिए अपनी अकर्मण्यता को छिपाने का बहाना भी बनी तकनीक.जब कोई वेबसाइट तक पहुंच ही न सके या फोन मिला ही न सके, तो जवाब देना आसान है कि मांग इतनी बढ़ गयी है कि सर्वर उसे पूरा नहीं कर पा रहे हैं. लेकिन कोई उनसे यह पूछे कि वेबसाइटों के पांच-दस मिरर (अलग-अलग ठिकाने) बना देने से आपको किसने रोका है या फिर एक ही फोन की सौ या दो सौ लाइनें लेने से किसने रोका है?


(ये लेखक के निजी विचार हैं.)


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