गहलोत क्यों चाहते हैं कांग्रेस अध्यक्ष पद के साथ सीएम की कुर्सी या कुछ और

 


अशोक गहलोत के समर्थकों ने राजस्थान में जिस तरह से माहौल बनाया है, उससे साफ है कि वे गहलोत को मुख्यमंत्री पद से जाने नहीं देना चाहते। वहीं पूरे घटनाक्रम पर सीएम गहलोत की चुप्पी से साफ है कि वे मुख्यमंत्री पद छोड़कर अध्यक्ष नहीं बनना चाहते।

अशोक गहलोत का कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनना लगभग तय माना जा रहा है। ऐसे में उनके समर्थक उन्हें राजस्थान से बाहर क्यों नहीं जाने दे रहे? क्या गहलोत ही है जो कांग्रेस अध्यक्ष पद से दूर रहना चाहते हैं? अगर हां, तो इसके लिए कांग्रेस में गैर-गांधी पार्टी अध्यक्ष का लंबा इतिहास भी बड़ा कारण है। 

पिछले साल कांग्रेस के 23 वरिष्ठ नेताओं ने सोनिया गांधी को नेतृत्व परिवर्तन और आंतरिक सांगठनिक सुधारों की चिट्ठी लिखी थी। इसे बाद में जी-23 नाम दिया गया। इसमें भी ज्यादातर नेता कांग्रेस छोड़ चुके हैं या हाशिये पर हैं। बात उस समय भी सही थी और आज भी सही है। कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष पद और सांगठनिक सुधारों का मसला मधुमक्खी के छत्ते जैसा है। उसे छेड़ने पर खुद को चोट से बचा पाना मुश्किल है। 

अशोक गहलोत के समर्थकों ने राजस्थान में जिस तरह का माहौल बनाया, उससे साफ है कि वे अपने नेता को मुख्यमंत्री पद से नहीं जाने देना चाहते। कहीं न कहीं गहलोत भी ऐसा ही चाहते होंगे। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद के मुकाबले प्रदेश में मुख्यमंत्री पद को तरजीह देना भले ही ज्यादातर लोगों को समझ नहीं आ रहा हो, इसके पीछे कांग्रेस पार्टी का लंबा इतिहास भी एक कारण है। 

गांधी परिवार के बाहर के अध्यक्ष टिक नहीं सके 

आजादी के बाद से अब तक कांग्रेस ने 18 अध्यक्ष देखे हैं। 75 साल में 40 साल नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों ने ही पार्टी की कमान संभाली। गांधी परिवार के बाहर किसी को यह पद मिला तो उसमें भी ज्यादातर समय गांधी परिवार का सदस्य ही प्रधानमंत्री की कुर्सी पर रहा। 2019 के चुनावों के बाद राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया तो भी अंतरिम अध्यक्ष पद पर सोनिया गांधी को बिठाया गया। साफ है कि पार्टी गांधी परिवार में ही अपना अध्यक्ष तलाशती रही है। इस बार राहुल गांधी ने साफ कर दिया है कि परिवार से कोई भी सदस्य अध्यक्ष नहीं बनेगा यानी साफ है कि अगला अध्यक्ष गांधी परिवार का नहीं होगा। 

अशोक गहलोत के साथ-साथ शशि थरूर भी दावेदार बन रहे हैं। थरूर को केरल के ही नेताओं का समर्थन नहीं है। ऐसे में अशोक गहलोत ने दोहरी चाल चली है। राजस्थान से दबाव बनाकर वे चाहते हैं कि राहुल गांधी ही पार्टी की मुख्य भूमिका अपने हाथ में लेकर आगे बढ़े। पार्टी उनके नेतृत्व में ही बेहतर प्रदर्शन कर सकती है। हालांकि, राहुल की अनिच्छा ने सभी समीकरण गड़बड़ा दिए हैं। राजस्थान की राजनीतिक स्थितियों ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या गहलोत अध्यक्ष पद से बचना चाहते हैं, जो उन्होंने अपने समर्थक विधायकों के जरिये केंद्र पर दबाव बनाया हुआ है। 

 

क्या है गहलोत के सामने कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर चुनौती 
यह पहली बार है कि कांग्रेस आठ साल से अधिक समय से सत्ता से बाहर है। इससे पहले ऐसी स्थिति 1996 से 2004 तक बनी थी, जब कांग्रेस सत्ता से दूर रही थी। आजाद इतिहास में यह दूसरा ही मौका है जब आठ साल से अधिक समय से कांग्रेस सत्ता से दूर है। ऐसे में कांग्रेस में सुगबुगाहट और भविष्य को लेकर शंका-आशंकाओं का दौर बढ़ गया है। ऐसे में अगर गहलोत अध्यक्ष बनते हैं तो पार्टी का सत्ता में लौटना सबसे बड़ी चुनौती होगी। 


इसके अलावा एक बड़ा संकट यह भी है कि गांधी परिवार के बाहर के व्यक्ति को अध्यक्ष के तौर पर पार्टी को एकजुट रख पाना बेहद मुश्किल रहा है। इतिहास में ऐसे कई वाकये हैं, जब गांधी परिवार से बाहर जाकर फैसला लेना अध्यक्षों को भारी पड़ा था। 1969 और 1977 की बात करें तो इंदिरा गांधी ने खुद पार्टी में बगावत की थी। 1969 में इंदिरा ने राष्ट्रपति पद के निर्दलीय उम्मीदवार वीवी गिरी को जिताने के लिए पार्टी के उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी को हरवाया था। तब इंदिरा को पार्टी से निकाला गया था। इसके बाद 1977 में भी जब इमरजेंसी के बाद पार्टी हारी तब के ब्रह्मानंद रेड्डी और वायबी चव्हाण ने इंदिरा के खिलाफ आक्रोश व्यक्त किया था। तब भी पार्टी टूटी और वजह इंदिरा ही थी।  


फिर 1997 तो सबको याद ही है। माधवराव सिंधिया, राजेश पायलट, नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह, ममता बनर्जी, जीके मूपनार, पी. चिदंबरम और जयंती नटराजन जैसे वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी के अध्यक्ष सीताराम केसरी के खिलाफ विद्रोह किया था। पार्टी कई गुटों में बंट गई थी। कहा जाने लगा था कि कोई गांधी परिवार का सदस्य ही इसे एकजुट रख सकता है। 1998 में सीताराम केसरी को उठाकर बाहर फेंका और फिर सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाया गया। शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर ने विदेशी मूल की सोनिया को अध्यक्ष बनाए जाने का विरोध किया तो पार्टी से उन्हें निकाल दिया गया।


2000 में जब कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव हुए तो यूपी के दिग्गज नेता जितेंद्र प्रसाद ने सोनिया को चुनौती दी। उन्हें गद्दार तक कहा गया। उन्हें 12,000 में से एक हजार वोट भी नहीं मिल सके। सोनिया का पार्टी पर एकछत्र राज हो गया। सोनिया 1998 से 2017 तक लगातार 19 साल पार्टी की अध्यक्ष रहीं। यह पार्टी के इतिहास में अब तक का रिकॉर्ड है। 2019 में राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद से ही अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर सोनिया के पास ही पार्टी की जिम्मेदारी है।

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