मैं मजदूर हूँ,अपनी किस्मत से मजबूर हूँ*
मैं मजदूर हूँ, अपनी किस्मत से मजबूर हूँ ।
कंधों पर परिवार का बोझ लिए, साकार करने बच्चों के सपनों को चाहता हूँ, सूरज की अग्नि में तपने
रात दिन मजदूरी करने
फटे पुराने कपड़ों में सूट का सुख पा लिया
स्वाभिमान से दो वक्त की रोटी कमाने का लक्ष्य बना लिया
संघर्षों से तनाव से लड़ा हूँ लेकिन फिर भी अपने कर्म में लीन हूँ,
यह खुला आसमान है छत मेरी,यह वसुंधरा मेरा बिछोना है ,घास फूस की झोपड़ी बनाई
नहीं तो रहता हूं अपने परिवार के साथ यही है मेरे सपनों का महल
गुजर रहा है सपनों के अभाव में
बहुत कांटे बिछे है मेरी राहों में
मगर मैं चेहरे पर मुस्कुराहट रखकर जीता हूं,आंसुओं के घूंट पीकर
क्योंकि मैं मजदूर हूँ, ईश्वर की आंखों से दूर हूँ !!
- पूनम उपाध्याय,बापूनगर
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