महिला जज को भी न्याय मिलने में लगे 32 साल:197 तारीखें पड़ीं, जज रिटायर हो चुकीं, मुख्य आरोपी तो दुनिया में ही नहीं

 

बीकानेर। भरण पोषण के एक मामले में फर्जी कागजात पेश करने पर महिला मजिस्ट्रेट ने तीन आरोपियों को सजा दिलाने के लिए हाईकोर्ट में इस्तगासा किया। लेकिन, फैसला आने में 32 साल का लंबा इंतजार करना पड़ा। इस दौरान मजिस्ट्रेट रिटायर हो गईं, मुख्य आरोपी भी दुनिया में नहीं रहा। 197 तारीखों के बाद दो लोगों को दोषी मानते हुए 6-6 महीने सजा सुनाई गई। दोनों की उम्र 74 और 78 साल है।

बीकानेर में न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम वर्ग संख्या एक कमल दत्त की कोर्ट में पार्वती ने 20 जुलाई, 1987 को पति बस्तीराम से गुजारे भत्ते के लिए वाद दायर किया था। बस्तीराम ने पत्नी को 15,000 रुपए का भुगतान करने की रसीद पेश की थी, जो गवाह आत्माराम और जेठाराम की मिलीभगत से फर्जी तरीके से बनाई गई थी।

कोर्ट के साथ छल और फर्जी कागजात पेश करने पर महिला मजिस्ट्रेट कमलदत्त ने 30 मई, 1990 को सेशन जज के समक्ष बस्तीराम और उसके दोनों साथियों के खिलाफ इस्तगासा पेश किया था। प्रसंज्ञान लिया गया और बाद में पत्रावली ट्रांसफर होकर अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट संख्या एक में चली गई। ट्रायल शुरू हुई और लगातार तारीखें पड़ती रहीं।

एक मार्च, 16 को बस्तीराम की मृत्यु हो गई। जयपुर निवासी मजिस्ट्रेट कमलदत्त भी वर्ष 2017 में रिटायर हो गईं। इसी दौरान बस्तीराम की पत्नी पार्वती की भी 13 सितंबर, 21 को मौत हो गई। तत्कालीन मजिस्ट्रेट कमलदत्त के चार सितंबर, 21 को कोर्ट में बयान हुए और आखिरकार 32 साल बाद फैसला आया।

पीठासीन अधिकारी परवीन बानू ने अपने कोर्ट के सबसे पुराने मामले में आत्माराम (74) और जेठाराम (78) को दोषी मानकर छह-छह माह की जेल और प्रत्येक को 3000 रुपए अर्थदंड की सजा सुनाई गई। अर्थदंड जमा नहीं करवाने पर तीन माह का अतिरिक्त कारावास भुगतना होगा।

एफएसएल रिपोर्ट से सामने आया, कोर्ट में पेश 15000 रुपए की रसीद फर्जी थी
पार्वती के वाद पर उसके पति बस्तीराम ने कोर्ट में गुजारा भत्ता 15000 रुपए देने की रसीद पेश की गई। रसीद पर पार्वती के अंगूठे के निशान बताए गए और आत्माराम व जेठाराम ने गवाही दी। न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम संख्या एक ने रसीद को एफएसएल जांच के लिए भेजा।

एफएसएल रिपोर्ट से साबित हो गया कि रसीद फर्जी तरीके से तैयार की गई थी जिस पर पार्वती के अंगूठे के निशान नहीं थे।कोर्ट ने छह मई, 1989 को 340 आईपीसी में तीनों आरोपियों को नोटिस दिया। उसके बाद 24 मई, 90 को आरोपियों के खिलाफ आईपीसी की धारा 193, 467, 468 व 471 में सेशन कोर्ट में इस्तगासा हुआ।

  • आम तौर पर जिसमें जल्दी गवाही प्रक्रिया पूरी हो जाती है, उसमें फैसला भी जल्दी आता है। लेकिन, 32 साल पुराने ऐसे मामलों की सुनवाई अलग से होनी चाहिए। इसके अलावा फैसला आने पर अपील की सुनवाई के लिए भी अलग से कोर्ट हो। न्यायिक प्रक्रिया में सभी के लिए प्रक्रिया एक समान होती है। - जितेन्द्रसिंह यादव, रिटायर्ड सेशन जज

वर्ष 1990 से 2022 तक तारीख पर तारीख
महिला मजिस्ट्रेट की ओर से दायर इस्तगासे भी प्राथमिकता में नहीं रहा और साल दर साल तारीखें पड़ती रहीं। पूरे मामले में 32 साल के दौरान 197 तारीखें पड़ी। कभी आरोपी पेश होते, कभी उनकी हाजिरी माफी दी जाती। वर्ष, 90 में दो, 91 में सात, 92 में तीन, 93 से 95 तक दो-दो, 96 में तीन, 97 में दो, 98 में दो, 99 में छह, 2000 में पांच, 2001 में नौ, 2002 में चार, 2003 से 2005 तक पांच-पांच, 2006 में छह, 07 और 08 में सात-सात, 2009-2010 में पांच-पांच, 2011-12 में छह-छह, 2013 में सात, 2014 में चार तारीखें पड़ीं।

कोर्ट ने कहा-परिवीक्षा का लाभ दिया तो अपराधियों के हौसले बुलंद होंगे
अभियुक्तों के वकील का तर्क था कि मामला काफी पुराना है। अभियुक्तों का यह पहला अपराध है। नरमी का रुख अपनाते हुए परिवीक्षा अधिनियम का फायदा दिया जाना चाहिए। अभियोजन अधिकारी ने इसका विरोध किया और कहा कि अभियुक्तों ने फर्जी और नकली दस्तावेज बनाने में सहयोग किया और कोर्ट में सशपथ झूठे बयान दिए हैं।

दोनों पक्षों का तर्क सुनने के बाद पीठासीन अधिकारी ने कहा, अभियुक्तों पर झूठे साक्ष्य गढ़कर कूटरचित रसीद को असली बताकर पेश करने का गंभीर आरोप है। ऐसे अपराधों में परिवीक्षा अधिनियम का लाभ दिया तो अपराधियों के हौसले बुलंद होंगे।

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