कश्मीर की सर्द सुबह जब मस्जिदों से गूंजे नारे, यहां क्या चलेगा-निजाम-ए-मुस्तफा, हिंदू औरतें चाहिए मगर पति नहीं


नई दिल्ली। भारत की आजादी से पहले कश्मीर सुंदर के साथ-साथ शांतिपूर्ण जगह भी थी। यहां मुस्लिमों के साथ-साथ कश्मीरी पंडितों की आबादी भी ज्यादा थी। पूर्व में कई राजाओं ने यहां हमले किए और शासन चलाया, मगर शांति हमेशा बनी रही। कश्मीरी पंडितों के साथ भेदभाव कभी नहीं हुआ था। मगर वर्ष 1989 के अंतिम दिनों में यहां हिंदुओं खासकर कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया जाने लगा और तब से धीरे-धीरे लगातार इसमें तेजी आती गई। 

अखबारों के जरिए जेहाद का ऐलान हुआ और कश्मीरी पंडितों से कश्मीर छोड़ने को कहा गया। दहशत फैलाने के लिए सबसे पहले पंडित टीका लाल टपलू को दिनदहाड़े गोलियां मारी गईं, जिससे उनकी मौत हो गई। 1990 की शुरुआत में यहां हिंसा चरम पर पहुंच गई और सैंकड़ों कश्मीरी पंडित जनवरी के पहले में कश्मीर छोड़कर चले गए। 

 

हमें पाकिस्तान चाहिए और हिंदू औरतें भी, मगर पति के बिना

इसके बाद भी हिंसा का दौर जारी रहा। जनवरी के तीसरे हफ्ते तक हालात और बिगड़ने लगे। 19 जनवरी 1990 की वह सर्द थी। मस्जिदों से लाउडस्पीकर पर अजान हो रहे थे। अजान के बाद ही अचानक नारे गूंजने लगे। लाउडस्पीकर पर इन नारों के साथ ऐलान किया गया कि हिंदू और कश्मीरी पंडित घाटी छोड़कर चले जाएं। नारे लगाए गए-  कश्मीर में अगर रहना है तो अल्लाहू अकबर कहना है, यहां क्या चलेगा.. निजाम-ए-मुस्तफा। इसके साथ स्थानीय भाषा में भी कुछ नारे गूंजे, जैसे- असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान। यानी हमें पाकिस्तान चाहिए और हिंदू औरतें भी। मगर उनके पति नहीं चाहिए। सड़कों पर भी तकरीरें चल रही थीं। कट्टर बयान दिए जा रहे थे। 

 

सड़कों पर खुलेआम पाकिस्तान की शान में तकरीरें दी जा रही थीं

मस्जिद से गूंज रहे ये सभी नारे कश्मीरी पंडितों के लिए चेतावनी थे और ये उन्हें बीते कुछ महीनों से लगातार मिल रही थी। वैसे तो काफी कश्मीरी पंडित पलायन कर गए थे, मगर जो रह गए थे वे अपने खिलाफ उगले जा रहे जहर को देख-सुनकर उस दिन काफी बेचैन थे। रात के अंधेरे में बहुत से कश्मीरी पंडित अपने सामान के साथ घाटी छोड़ने के लिए बाहर निकले और उनके पीछे-पीछे हजारों परिवार ऐसे ही पलायन करते रहे। यह क्रम हफ्तों तक चला और घाटी से करीब-करीब लाखों परिवार शरणार्थी बनने को मजबूर हो गए।  

जब 'कश्मीर में अगर रहना है, आल्लाहू अकबर कहना है' जैसे नारों से सहम गए थे कश्मीरी पंडितों के दिल

1990 के पहले महीने के दूसरे पखवाड़े से कश्मीर की मस्जिदों (Mosques of Kashmir) से अजान के साथ नारे गूजंने की भी आवाजें आनी शुरू हो गई थी। यह नारे थे 'कश्मीर में अगर रहना है, आल्लाहू अकबर कहना है', 'यहां क्‍या चलेगा, निजाम-ए-मुस्तफा', 'असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान' इसका मतलब हमें पाकिस्‍तान (Pakistan) चाहिए और हिंदू औरतें भी मगर अपने मर्दों के बिना। यह तमाम नारे कश्‍मीरी हिंदू पंडितों (Kashmiri Hindu Pandits) के लिए थे।

Kashmiri Pandits were once 15% of the total population, who are now barely 9000

कश्मीर और कश्मीरी पंडित, जब भी इनके बारे में चर्चा होती है तो देश के लाखों करोड़ों लोगों की आंखें नम और खून दोनों उतर आता है। आज इनकी चर्चा इस वजह भी हो रही है कि 'द कश्मीर फाइल्स' नाम की फिल्म शुक्रवार को सिनेमाघरों में रिलीज हुई। अनुपम खेर, मिथुन चक्रवर्ती और पल्लवी जोशी जैसे दिग्गज कलाकारों से सजी फिल्म लोगों को फिर से 1990 के उस शुरुआती दौर में ले गई, जब कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम किया जा रहा था और उनके घरों और जिंदगी को तबाह किया जा रहा है। इस फिल्म रिजील के बीच आपको फिर से एक बार फिर उसी दौर में ले चलते हैं, जहां उस दौर में दुनिया के स्वर्ग में वो सब घटा जिसे सिर्फ और सिर्फ नरसंहार ही कहा जाएगा।

जब लगने शुरू हुए नारे
1990 के पहले महीने के दूसरे पखवाड़े से कश्मीर की मस्जिदों से अजान के साथ नारे गूजंने की भी आवाजें आनी शुरू हो गई थी। यह नारे थे 'कश्मीर में अगर रहना है, आल्लाहू अकबर कहना है', 'यहां क्‍या चलेगा, निजाम-ए-मुस्तफा', 'असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान' इसका मतलब हमें पाकिस्‍तान चाहिए और हिंदू औरतें भी मगर अपने मर्दों के बिना। यह तमाम नारे कश्‍मीरी हिंदू पंडितों के लिए थे। वैसे ऐसी धमकियां उन्हें बीते कई महीनों से लगातार मिल रही थी। हजारों हिंदूओं में बेचैनी और डर था। कश्मीर की ऐसी कोई सड़क और गली नहीं थी जहां इस्‍लाम और पाकिस्‍तान की शान में बातें ना हो रही हों। हिंदुओं के लिए कश्मीर में जहर उगला जा रहा था। उसके बाद हिंदूओं ने अपना सामान बांधना शुरू कर वहां से पलायन करने का फैसला लिया।

जब कश्मीरी पंडितों कानिकला पहला जत्था
19 जनवरी की रात को कश्मीरी पंडितों का पहला जत्थे कश्मीर से पलायन शुरू  किया। उसके दो महीनों के बाद यानी मार्च और अप्रैल के महीने में हजारों कश्मीरी पंडित परिवार घाटी से अपना घर छोड़कर देश के दूसरे इलाकों में पलायन कर गए। कुछ ही महीनों के अंदर कश्मीरी पंडितों के खाली घरों को आग के हवाले कर दिया गया। जिन कश्मीरी पंडितों के घर मुस्लिम बाहुल्य आबादी के पास थे उन्हें प्लानिंग के साथ बर्बाद दिया गया।

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